प्रधानाचार्य महोदय की कलम से
प्यारे छात्रों, जीवन अनमोल है| यही जीवन सच्चे कर्मयोगी बनकर जिया जाए तो उसकी सार्थकता बढ़ जाती है| परमात्मा ने हमें केवल वर्तमान क्षण दिया है जिस पर हमारा पूरा अधिकार है बाकी सब तो उसने अपने हाथ में ही रखा है| अब यह हमारे ऊपर है कि इस क्षण का पूर्ण सदुपयोग कर जीवन को सफलता की ओर ले जाएं या फिर वर्तमान क्षण को निठल्ले बैठकर व्यर्थ नष्ट हो जाने दें|
जीवन की राहों में पक पक पर कठिनाइयों से सामना होता है| असफलताएं आती हैं परंतु एक सच्चा कर्मयोगी अपने दृढ़ संकल्प तथा आत्मविश्वास के बल पर हर कठिनाई को एक अवसर में बदल देता है और असफलता से सफलता की ओर अग्रसर हो जाता है| सच्चे कर्मयोगी के जीवन में निराशा का कोई स्थान नहीं होता है। वह सूछ्म आत्मनिरीक्षण द्वारा असफलता के कारणों को जानकर उन्हें दूर करने में निरंतर लगा रहता है| सच्चा कर्मयोगी स्वयं अपना मार्ग-दर्शक होता है| भगवान गौतम बुद्ध का अंतिम संदेश सदैव याद रखें “अप्प दीपो भव” अर्थात स्वयं अपने मार्ग-दर्शक बने, अपने गुरु बने| यह संदेश आपके जीवन में भी बड़ी क्रांति ला सकता है| स्वयं के गुरु बन जाने पर अन्य कोई व्यक्ति या कारण आपको अपने मार्ग से भटका नहीं सकेगा| सच्चा कर्मयोगी कठिनाइयों से डट कर मुकाबला करता है| उन से डर कर दूर नहीं भागता| वह हर परिस्थिति में अपना संतुलन बनाए रखता है तथा बिना किसी यश या लोकप्रियता की चाहत के वह अपने कर्तव्य पथ पर निरंतर लगा रहता है| उसकी फल में कोई रूचि नहीं होती| अतः जीवन में कभी वह तनाव ग्रस्त व दुखी नहीं हो सकता| निस्वार्थ भाव से कर्तव्य पालन करने पर मन को जो गहरी शांति तथा आनंद की अनुभूति होती है वहीं कर्मयोगी के लिए फल है| सच्चा कर्मयोगी सहनशील होता है| नियम संयम तथा मर्यादा का पालन करते हुए समाजोपयोगी कर्मों में निरंतर रहना ही कर्मयोगी का एकमात्र लक्ष्य होता है।
वह तेरा-मेरा, वैमनस्यता तथा संकीर्णता के विचारों से मुक्त होता है| वह किसी में ना तो दोष ढूँढता है, ना दूसरों को बुरा साबित करने में अपनी शक्ति का अप व्यय करता है।
वह तो अपनी संपूर्ण शक्ति कर्म रूपी यश में लगा देता है| यदि सभी मनुष्य सच्चे कर्मयोगी बन जाएं तो पृथ्वी स्वर्ग बन जाए| यह पूरी प्रकृति ही नि:स्वार्थ कर्मयोग के सिद्धांत पर चल रही है| प्रकृति की हर वस्तु बिना किसी हीनता या श्रेष्ठा के भाव से अपने अपने स्वभाव के अनुकूल कर्म में निस्तारित हैं| ना फूलों में श्रेष्ठता है न कांटो में फूलों को देखकर कोई हीनता भाव है| जो जैसा है वैसा ही दिखने में राजी है| सभी सहज हैं| प्रकृति का संचालन पूर्व निस्वार्थ भाव से हो रहा है जिसमें अपार उर्जा भी लगी है| अनंत ब्रह्मांड में पिण्ड अपने-अपने मार्गों पर घूम रहे हैं सूर्य हमें ऊष्मा तथा प्रकाश दे रहा है| प्रकृति हमें जीवन के लिए प्राणवायु ऑक्सीजन दे रही है| वर्षा से हमें जल मिल रहा है| वृक्षों से हमें फल, वनस्पतियां, औषधियां प्राप्त हो रही हैं| इसके एवज में प्रकृति हमसे कोई टैक्स नहीं वसूलती है| सब कुछ नि:स्वार्थ भाव से हो रहा है| परंतु यदि मनुष्य को देखें, तो वह जिस प्रकृति से सब कुछ पाता है, उसी को नष्ट करने पर तुला हुआ है| मानव की स्वार्थी सोच ने उसे प्रकृति से दूर कर दिया है| वह प्रकृति से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है| प्रकृति का मानव को संदेश है "बिना किसी स्वार्थ के सेवा करो" परंतु मनुष्य रूपी प्रजाति प्रकृति से ही उत्पन्न होने के बावजूद अपनी स्वार्थ सोच के कारण दु:खी है| मनुष्य की कठिनाई यही है कि वह चोर बने रहकर साहूकार दिखना चाहता है| क्रोधी हो कर भी बाहर से विनम्र दिखना चाहता है| अंदर से अधार्मिक व्यक्ति भी बाहर से धार्मिक दिखना चाहता है| सभी को अपनी अच्छी छवि दिखाने की चिंता है| उसके लिए कुछ लोग आजकल हजारों रुपए खर्च कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सहारा लेकर अपनी छवि निखारने में लगे हैं| वह दूसरों को बेवकूफ बनाने में इतना खर्चा कर सकते हैं लेकिन क्या वे स्वयं में वास्तविक बदलाव लाना चाहते हैं ? वे तो केवल इसलिए धार्मिक, विनम्र, सदाचारी दिखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें समाज में पद एवं सम्मान मिलेगा| उनकी रुचि बदलाव में कदापि नहीं है| ऐसे ढोंगी जननायक यदि प्रकृति से कुछ सीखे तो वास्तविक बदलाव भी आ सकता है| यदि हम सभी सच्चे दिल से अपने को बदलने को तैयार हो जाएं तो पूरे समाज की सूरत ही बदल जाए| अतः मेरा सभी से विनम्र आग्रह यही है कि प्रकृति को अपना गुरु मानकर सूक्ष्म निरीक्षण करें कि वह कितने नि:स्वार्थ भाव से सेवारत है| हम सभी अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार नि:स्वार्थ सेवा का व्रत लें| जहां हैं, जिस परिस्थिति में हैं, जो भी हमसे समाज हित में हो सकता है नि:स्वार्थ भावना से करने का दृढ़ संकल्प लें| याद रखें आत्मविश्वास से बड़ा कोई गुण नहीं होता है तथा हीन भावना से बड़ा कोई अवगुण नहीं होता| हम सभी अनन्त क्षमताओं को लेकर पैदा हुए हैं| अब यह हमारे ऊपर है कि कितने प्रतिशत क्षमताओं का उपयोग इस जीवन के लगभग 100 वर्ष की अवधि में कर सकते हैं| यह कैसे होगा? केवल जीवन में आत्मविश्वास आ जाए तो अवश्य होगा| "मैं यह कर सकता हूं" यह भाव मन में हमेशा जागृत रहे| ज्यों ज्यों आत्मविश्वास जागृत होता है व्यक्ति पूर्ण भय मुक्त हो जाता है| मृत्यु के भय से भी मुक्त| फिर वह व्यक्ति संसार से विदा लेने से पहले ऐसा कुछ अवश्य कर जाता है कि बाद की पीढ़ियाँ उसे कृतज्ञ भाव से याद रखती हैं ।
समस्त विद्यालय परिवार एवं अध्ययनरत छात्रों को मेरा यही संदेश है कि जीवन में सफलता आनंद और शांति के प्राप्त के लिए सच्चे कर्मयोगी बने|